अभेद
विस्तृत नील गगन
मलय मदिर मृदु पवन
साँसों में प्रवाहित
प्रतिक्षण
कल-कल बहती
नदी की धारा
या दूर गगन का
वो इकतारा
बादलों का फुहार
सरस रसधार
प्राची से प्रस्फुटित
जीवनदायी
सूरज की धूप
माँ की ममता सी
सबके लिए
सुलभ एकरूप
उन्मुक्त अभेद
रगो में बहते लहू भी
कर न पाए कोई भेद
फिर क्यूँ?
धरा पर खींच लकीर
खेतों के मेड़ सा
मानव
मानव से ही
करता है भेद
सर्व से
स्व की ओर
कदम बढ़ते हैं
परस्पर
कुछ श्रेणी गढ़ते हैं
स्वार्थ ने किए
बहु उदभेद
दंश झेलती है वसुधा
इस विभेदन का
इस विखण्डन का
काश पढ़ पाते
वो गीता,कुरान
वो वेद
मानवता-जहाँ अभेद।
-©नवल किशोर सिंह