अभी सत्य की खोज जारी है…
क्या लिया यहाँ क्या दिया यहाँ
बस अर्थ चक्र में फँसा रहा।
किस हेतु जीवन जी रहा
कुछ पता नहीं बस लगा रहा।
मैं काम क्रोध की अग्नि में
जीवन भर जलता रहा।
ना स्वयं को जान सका
ना ईश्वर को पहचान रहा।
जन्म – मरण के पलड़े पर
यम का पलड़ा भारी है ।
ये समय जरा तू ठहर जा
अभी सत्य की खोज जारी है…
दिन रात और सुबह शाम
बस काम किया और नाम किया।
मान सम्मान प्रतिष्ठा का
जी भरकर गुणगान किया।
मुक्त गगन के पंछी को
क्यों बंधन से जंजाल किया।
मिथ्या अभिमान के खातिर
मैंने स्वयं को अनजान किया।
अनभिज्ञ रहा वह जान सकूँ
यह आत्म की ललकारी है।
ये समय जरा तू ठहर जा
अभी सत्य की खोज जारी है…
जरा मोह पाश के बंधन से
छुटू तो एक पल के लिए।
लालच लोभ की दुनिया से
विरक्त होकर देखु जरा।
मुझे संतो की अब वाणी को
सुनकर कुछ पुण्य कमाना है।
सतगुरु मिले मझधार जरा
मुझे भवसागर तर जाना है।
चक्षु ज्ञान के खुले तभी
जब काया बल से हारी है।
ये समय जरा तू ठहर जा
अभी सत्य की खोज जारी है…
– विष्णु प्रसाद ‘पाँचोटिया’