अभी दूर बहुत जाना है…
यूँ हार के मन क्यों बैठे राही
अभी दूर बहुत जाना है !
पथ में आए इन रोड़ों से
तुम्हें तनिक न घबराना है !
क्यों मन इतना विचलित होता
क्यों आस धैर्य सब ये खोता
हँसते- गाते, मौज मनाते
पथ अपना सुगम बनाना है
यूँ हार के मन क्यों बैठे राही….
उदास करो न यूँ मन अपना
पूरा करो जो देखा सपना
शीत फुहारें मिलतीं कभी तो
कभी धूप में पड़ता तपना
रात अंधियारी खौफ जगाती
चाँदनी सुधा बरसाती है
मिलते जितने अनुभव मग में
संचित करते जाना है
यूँ हार के मन क्यों बैठे राही….
आएँ विपदाएँ, आने दो
कुसुम न मन का मुरझाने दो
बुद्धि को अपनी हर गुत्थी
हर उलझन सुलझाने दो
चंद चोटों से यूँ ही तो नहीं
मंजिल छोड़ चले आना है
कितना हुनर छिपा है तुममें
दुनिया को ये दिखलाना है
यूँ हार के मन क्यों बैठे राही….
जिंदादिली हिम्मत औ दिलेरी
साथ सदा अपने रक्खो तुम
हर सफलता- असफलता का
नित स्वाद निराला चक्खो तुम
संकल्पित पंखों से अपने
ऊपर उठते जाना है
छूकर बुलंदियाँ आसमां की
लौट जमीं पर आना है
यूँ हार के मन क्यों बैठे राही
अभी दूर बहुत जाना है !
पथ में आए इन रोड़ों से
तुम्हें तनिक न घबराना है !
— डॉ. सीमा अग्रवाल —
“चाहत चकोर की” से