मैं बनती अभिमान
मैं बनती अभिमान
बोध हुआ मातृत्व का, फैल गया उल्लास।
हर्षित थे सबके हृदय, थी बालक की आस।
माँ तुम ही सहमी डरी, थी बिल्कुल चुपचाप।
मन में आतंकित बहुत, युद्ध स्वयं से आप।
आखिर वह दिन आ गया, हुई लिंग की जाँच।
क्षोभित, क्रोधित सब हुए, लगी आपको आँच।
क्या मुझसे गलती हुई, हुआ कौन अपकार?
क्यों मुझसे छीना गया, जीने का अधिकार।
खंड-खंड करके मुझे,
किया आपसे दूर।
हृदय नहीं, पाषाण थे,
थे वे कितने क्रूर।
माँ! तुम कुछ न कर सकीं,
मेरा किया संहार।
माता और संतान का, कहाँ गया वह प्यार??
बेटा लेता जन्म तो, क्या लाता उपहार ?
बेटी यदि ले जन्म तो, क्यों गिर पड़े पहाड़?
क्यों बेटी के जन्म से, हो जाते सब खिन्न।
दोनों संग व्यवहार सब, क्यों करते हैं भिन्न?
माँ तुम भी कन्या अहो! क्यों सहतीं अन्याय?
यदि तुम भी होती नहीं, पुत्र कहाँ से आए?
कन्या की पूजा जहाँ, रहें वहाँ पर देव।
बातें यों बढ़-चढ़ कहें, मन में रहे कुटेव।
माँ मैं तो अब भग्न हुई, बढ़ी तुम्हारी शान।
खेल खिलौना थी नहीं, थी तेरी संतान।
अगर जन्मती मैं वहाँ, बनती मैं अभिमान।
पाप कर रहे घोर सब, देख रहा भगवान।
सर्जनहारी जो रही, जो पाले परिवार।
उस माता को ही नहीं, निर्णय का अधिकार।
स्त्री यदि इतनी अधिक, होती है कमजोर।
रक्षा को संतान की, लगा सके न जोर।
आना इस संसार में, नहीं मुझे स्वीकार।
अबला माँ की कोख को, करती अस्वीकार।
इंदु पाराशर
इंदु पाराशर