अभिलाषा
मैं एक ठूँठ
जैसे वृक्ष कोई
“ताड़” का
दूर बस्ती से अकेला हूँ खड़ा
मन में सौ सपने संजोये
जूझता बरसों से ही
आते-जाते अंधड़ों से
और सहता
चिलचिलाती धूप की बरसात को ।।
मैं एक ठूंठ
जैसे वृक्ष कोई
”ताड़” का
दूर स्वयं से दूर
बस्ती में खड़ा एक नीम को
ताकता-
निहारता-
मैं सोचता हूँ
उसपे आते और जाते
चहचहाते
पँछियों को देख कर –
काश कि!
मैं भी होता
वृक्ष कोई
“नीम” का…….।।
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सरफ़राज़ अहमद “आसी”