अभियान
राह से मै लौट आऊं, इतना पुकारो मत मुझे
मै अपरिचित बन पड़ूं इतना सवारों मत मुझे
दो दिनों का अवकाश ले
मेहमान बनकर आ गया था
बादलों की गोद से में
बूंद बनकर गिर गया था।
भाप ही मैं बन न पाऊं, इतना सम्हालो मत मुझे
तुम्हारे द्वारा गलियों से
बहुत परिचय बढ़ाया था
रात की स्याही मिटे तो
नेह का दीपक जलाया था।
धूम्र रेखा बन न पाऊं, इतना दुलारो मत मुझे।।
मानता हूं परिचितों का
दायरा विस्तृत हुआ था
दिल सिमट कर नृत्य में
संगीत में बन ठहरा हुआ था
ठहराव की जड़ता बढ़े , इतना सुधारो मत मुझे।।
चल पड़ा तो पार्श्व से
अब शंख ध्वनि हो
राह फूलों से सजे और
मुक्त भावों से नमन हो
मुक्त भावों में व्यथा हो , इतना निहारो मत मुझे।।