अभिमान
विधा विनम्रता सीखाती है,
फिर ये दर्प क्योंकर आती है,
है अधजल गगरी जो वह
सदा ही यूँ छलक जाती है।
झूठे पद का शान रखें जो,
बोली में अभिमान रखें जो,
क्योंकर कब तक सरस्वती
उनके यहाँ आसन जमाती है।
फल से लदा हुआ वृक्ष झुकता है,
बादल नीचे गिर कर शीतल करता है,
फिर थोड़ी सी ऊँचाई पाकर,
ये इंसान क्यों इतना गर्व करता है।
भाग्य विधाता ईश्वर सदा से ही,
फिर इंसान क्यों खुद को समझता है।
क्यों ईश्वर के बनाये हुए कर्मलेख पर
इतना इतराता और घमंड करता है।
बोली में सम्मान रहे जब इंसान के,
तभी उसको सम्मान सदैव मिलता है।
जब वो खुद को ही बड़ा समझे,
फिर वो कहाँ कभी खुद निखरता है।
अपने ऊपर अभिमान रहे जब,
खुद को ही बड़ा कहे जब,
समय एक सा नही रहता कभी,
समय उसका अभिमान तोड़ता है।