अभिनय
कब तक बदलता रहूं
गिरगिट की तरह रंग
एक चेहरा पे कई के चेहरे
कब तक छुपता फिरूं
शीशे की तरह टूट कर
होठों पे झूठी मुस्कान लिए
कब तक अभिनय करूं
बारिश में चलते चलते
रोते गाते और हँसते हुए
दुनिया की थपोडें खाते
जेठ दोपहरी में बंजारा बन
इधर उधर भटकता फिरता हूं
गांव गांव शहर शहर
दुनिया पे खेल, नाटक के
कब तक अभिनय करूं
तोड़ना चाहता हूं
बंधन की जंजीरे
होना चाहता हूं
उन्मुक्त माया से
कब तक अभिनय करूं
✍️ दुष्यंत कुमार पटेल