अब सियासत ढल गई व्यापार में।
जब सदा रहना नहीं संसार में।
क्यूं उलझते हो भला बेकार में।।
प्यार में ताकत यहाँ जो है सुनो।
वो नहीं ताकत किसी तलवार में।।
काम ज्यादा कर रही तलवार से।
है कलम छोटी भले आकार में।।
प्यार की बातें करो कुछ तो सनम।
क्या रखा है अब यहाँ तकरार में।।
आदमी के कारनामे देखिये
बेचता है सच यहाँ बाजार में।।
लग गया सदमा मुझे भी देखकर।
हादसे ही हादसे अखबार में।।
दिख रहे हैं जो महल ऊँचे यहाँ।
सिसकियाँ इनकी छुपी दीवार में।।
हो गये वो गैर के इक रोज पर।
ढूँढते हम हां रहे इनकार में।।
हर कोई घाटा नफा है ढूँढता।
अब सियासत ढल गई व्यापार में।।
आ गया सावन महीना शंभु का।
दीप कांबडिये दिखें हरिद्वार में।।
प्रदीप कुमार