अब वो कश्मीर कहाँ है
अब वो वादियां कहाँ
क्या अब भी
याद है तुम्हें?
उस जनवरी की रात,
जब पूरी वादी बर्फ से सराबोर थी,
और यकायक
तुमने रात के बीचो-बीच
चाय की
फरमाइश रख दी थी,
जमी झील के बीच
शिकारे में चाय-पत्ती का
ख़त्म हो जाना भी याद ही होगा ,
और फिर वो १२ साल का वहीद
२ किलोमीटर दूर से
एक फरमाइश पर
चाय ले आया था,
उस चाय की चुस्की में बिताए
उन लम्हों की गर्माहट
आज भी इस रिश्ते में बरकरार है,
तभी तो वादी की कोई भी खबर हो
गाहे बगाहे “वहीद” का जिक्र
आ ही जाता है,
पर आजकल
वादी में हुज़ूम के
सर चढ़े जुनूंन की
ख़बरें आम है,
घर के चराग़ ही
घर को ख़ाक करने पर
उतर आये हैं,
सुना तुमने
नफरतें घर कर गयी हैं
बुनियाद में,
तेज़ाब बिखरा है फ़िज़ाओं में,
पनपती बेलों पर
सियासत की अमरबेलें
चिपक गयी हैं,
वहां अब कोई
चढ़ती बेल को
सहारा नहीं देता,
कोयलें गूंगी हो गयी हैं,
सुलगती वादी में
गुलों की शोखियाँ
जल गयी हैं,
“वहीद” होता तो बताता
झील के बीच
पनपते इश्क़ को
अब वहां
चाय नसीब नहीं होती !