अब युद्ध भी मेरा, विजय भी मेरी, निर्बलताओं को जयघोष सुनाना था।
संघर्ष भरी उस यात्रा का, हर पड़ाव हीं अनजाना था,
शोलों और काँटों पर, नंगे पगों को चलते जाना था।
आरम्भ हुआ एक युद्ध, जिससे सम्मान का ताना-बाना था,
मिथ्या के भ्रम जाल से, चोटिल हृदय को मुक्ति पाना था।
आस्था के दीपक को बुझाने, आंधी बस एक बहाना था,
नींव में छल के बीज़ निहित थे, उससे क्या बच पाना था।
पीड़ा की सीमा थी टूटी, संवेदनाओं को स्तब्द्धता अपनाना था,
अश्रु तो कब के सूख चुके थे, बस चिन्हों को मिटाना था।
शाश्वततापूर्ण धारणाओं को, क्षणभंगुरता में मिल जाना था,
स्वप्नों को धराशाही करना, नियति ने भी ठाना था।
विश्वास के टूटे टुकड़ों को, नयनों में चुभते जाना था,
अन्धकार की गोद मिली, जब विस्मृत स्वयं को हीं कर जाना था।
फिर गूंजते उस मौन से, अस्तित्व को भी तो बचाना था,
शून्य पड़े हृदय को, नव-आशाओं से संचारित करवाना था।
एक नयी रणभूमि सजी, जिधर क़दमों को बढ़ाना था,
पर अब युद्ध भी मेरा, विजय भी मेरी, निर्बलताओं को जयघोष सुनाना था।