अब मेरे गाॅंव में
अमीरों का शासन है अब मेरे गाॅंव में
लगते यहाॅं मेले अब वर्दी की छाॅंव में
कभी स्याह रात कभी धूप निकल आती है
कभी रौद्र गर्जन सुन छाती फट जाती है
कलेजा लग जाता है कभी कभी दाॅंव में
लगते यहाॅं मेले अब वर्दी की छाॅंव में
चरवाहे पोखर में नहाने न जाते हैं
पोखर में मगरमच्छ मौज अब मनाते हैं
लंगर भी पड़े हैं अब लंगड़ के पाॅंव में
लगते यहाॅं मेले अब वर्दी की छाॅंव में
होली दीवाली ईद बकरीद सूनी है
बैसाखी क्रिसमस की खुशी हुई खूनी है
भेड़ियाधसान गाॅंव कूद रहा खाॅंव में
लगते यहाॅं मेले अब वर्दी की छाॅंव में
देवदूत आते, वरदान साथ लाते हैं
वर फलित होने की अवधि बता जाते हैं
बायस जन पाते मोद नित्य काॅंव-काॅंव में
लगते यहाॅं मेले अब वर्दी की छाॅंव में
— महेशचन्द्र त्रिपाठी