अब मुझे महफिलों की,जरूरत नहीं रही
अब मुझे महफिलों की,जरूरत नहीं रही
और मुझे कोई सहारो,की जरूर नहीं रही
मैं मेरी तनहाई और,खामोश राते
अब मुझे उजालों की,जरूरत नही रही
आया है आज वो मुझे,पूछने हाल मेरा
अब मुझे तेरी भी,जरूरत नहीं रही
में खुद लड़ रहा हूं,अपने ही वजूद से
यानी की जीत हार की,गुंजाइश नहीं रही
आदत तन्हाई के जो,पहले थे अजाब जैसे
अब मजा आ रहा है,कोई अजियात न रही