अब भी श्रम करती है वृद्धा / (नवगीत)
नवदशकों को
धता बताकर ।
मन पर यौवन
लेप चढ़ाकर ।
अब भी श्रम
करती है वृद्धा ।
ममता भरी
नदी यह माँ की
और सास है
सुगर सयानी ।
पोती-पोते,
बेटी-बेटे औ’
बहुओं की
है महारानी ।
हुक्म चलाती,
सेवा करती ।
हरेक ज़ख्म में,
मरहम भरती ।
चौका-बासन
इसकी श्रद्धा ।
अब भी श्रम
करती है वृद्धा ।
नब्बे तपन
पार करके भी
खिली वसंत की
ये फुलवारी ।
झाड़ू-पौंछा,
बिड़ी भाँजना
और सींचना
आँगन क्यारी ।
बैठे-बैठे
कभी न खाया ।
जो भी खाया,
कर्ज़ चुकाया ।
फ़र्ज़ निभाने
में भी सिद्धा ।
अब भी श्रम
करती है वृद्धा ।
तनहाई,बैरिन
है इसकी,
भीड़ इसे अच्छी
लगती है ।
होंठों पर
मुस्कान लिए
है, आँख विरह
पीड़ा दिखती है ।
श्वास-श्वास में
पति वियोग है ।
हाथ-पाँव में
कर्म योग है ।
संकल्पों की
सिद्धा-रिद्धा ।
अब भी श्रम
करती है वृद्धा ।
नवदशकों को
धता बताकर ।
मन पर यौवन
लेप चढ़ाकर ।
अब भी श्रम
करती है वृद्धा ।
— ईश्वर दयाल गोस्वामी ।