अब बस करो
कभी आसमान, तो कभी पायदान देखा करो।
जात-पात, मज़हब छोड़ दो, इंसान देखा करो।
मज़हबी नफ़रत फ़ैलाने वालों, अब बस करो,
सर पे टोपी नहीं, दिल में हिंदुस्तान देखा करो।
तुम्हारी नाक के नीचे, रिश्वतखोरी चलती है,
कभी तो ईमानदारी से, बेईमान देखा करो।
तुम आलीशान आशियानों में भरे पेट बैठे हो,
कभी तो अपने निवाले में, किसान देखा करो।
कब तक तुम ख़ुद को ही,ख़ुदा समझते रहोगे,
कभी ग़रीब में भी अपना, भगवान देखा करो।
तुम कोई पैदायशी सरफ़राज़ थोड़े ही हो,
पीछे मुड़कर अपना भी खानदान देखा करो।
संजीव सिंह ✍️
(स्वरचित एवं मौलिक)
०६/०१/२०२१
द्वारका, नई दिल्ली