अब तो संभलो….!
स्वार्थ के हर रंग में
रंग गया है दिल…देखो.!
और मुस्कुराकर कह रहे
ये दुनियाँ कितनी रंगीन है
“मतलबी”रस्से से अब
बँध गया है तन…..देखो..!
प्यार के वो कच्चे धागे
मिल नहीं रहें हैं.. आज
महँगाई से मामला ग़मगीन है
औपचारिकता के रोग लगें हैं
हर.लोग यहाँ बीमार है
डॉक्टर भी पड़ा है शय्या पर–
अपने–अपने दर्द में लीन है
चमक सच्चाई की सह नहीं सकते
अब चश्मा सबकी नयनों पर है
दूसरों को आँखें दिखाना….हिम्मत कहाँ.?
अजी,नज़र तो सबकी अपनोँ पर है
मुखड़े तो दिख पड़ते साफ-सुथरे से–
मन ही तो अब सबका मलीन है
प्रदूषित हो चुका मानस-पटल
खिलखिलाहने के अन्दाज़ बदले
जिह्वा की सीमा ही ना रही
ध्वनि अब होती दिशाहीन है
ऐ “रंजित” कैसे हो अब
दिल हँसता–बोलता ‘मुन्ना’ सा
भाव–लगाव और कशिश ?
रिश्ते हो रहे आज प्रेमविहीन है
सँभालने की कसम भी–
अब सँभलती नहीं उनसे
भ्रष्टाचार बोल रहा–सब.मौन है
अच्छाईयाँ हो रही गौण है
चीखना–चिल्लाना क्या करोगे..?
गूँगे–बहरे के लिबास में पदासीन हैं
अब तो सँभलो….!!!
ऐ सुधी मानवों..
हर विकार–दूषित विचार-
अस्तित्व ना रहेगा कुछ भी
“सत्य” के सिवा यहाँ पे
ईमान–प्रेम–व्यवहार–संस्कार
बच जाऐंगी केवल इनकी बुनियादें-
सारा ब्रह्माण्ड तो–“सत्य”के अधीन है……।।