अब तो मज़हब (ग़ज़ल)
ग़ज़ल
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
जिसको हर इंसान द्वारा मन से फैलाया जाए।
होंगी फिर इस मुल्क़ में भी कुछ नयीं तारीखें।
क्यो न हर बुराई को अच्छाई में ढ़लाया जाए।
लेके कुछ फ़न कुछ ग़ुर पूर्वजो महानुभावो के।
घोल सा उनका बनाकर भावी पीढ़ी को पिलाया जाए।
हो वो ज़मज़म-चिनाब़ गंगा या यमुना का जल।
जल को जल कहे कोई फर्क उनमें न लाया जाए।
जो चले थामें वतन को सीप में मोती के जैसे।
पूज उनको सामने उनकेे सजदे में सिर को झुकाया जाए।
बॉटतें है मुल्क़ को जो सिर्फ अपने स्वार्थ को-ए-सुधा।
अधिकार है जनता को यें उनको सुलाया जाए।
सुधा भारद्वाज
विकासनगर उत्तराखण्ड