अब कहां वो बरसात !
अब कहां वो बरसात ,
जो हमने बचपन में देखी थी ।
धुंआधार मूसलधार बरसती बरसात में ,
हल्की हल्की ठंडक महसूस की थी ।
मिट्टी से उठती भीनी भीनी सोंधी महक ,
मत पूछो ! कितना भाती थी ।
उसपर उसकी बूंदों की एक एक बौछार,
मन के तारों को छेड़ जाती थी ।
उसकी वो टप टप टीप टिप एक ,
मधुर गीत की तान छेड़ती थी ।
हमारी वो कागज की कश्तियां ,
दूर दूर तक का सफर कर आती थी ।
फिर खिड़की पर हम बैठ जाते थे ,
और मां गर्मागर्म स्वादिष्ट पकोड़े बनाकर खिलाती थी ।
उस बरसात की बात ही कुछ और थी ।
ऐसी बरसात हमने जीवन में फिर कभी
नहीं देखी ।
वो बचपन की फुरसत वाली बरसात ,
हमने फिर कभी नहीं देखी ।
अब वो कहां वो बरसात !
जो कभी हमें आल्हादित करती थी ।
अब कहां वो बेफिक्री !
अब कहां वो मस्तियां ।
ना ही रही वैसी बरसात ।
शीतल ,निर्मल और सुगंधित ,
क्या वैसी होती है अब बरसात?
जी नहीं साहब !
अब कहां वो बरसात ।