अब ऐसी कोई लालसा नहीं
अब ऐसी कोई लालसा नहीं
की बच्चों सी मैं दिखती रहुं।
बच्चों को दोस्त,बहन बताती फिरुं
मुझे अपनी उमर का ही दिखना हैं
मैच्योर हो सफेदी के रंग भरना हैं
महसूस करना हैं उमर की ख़ूबसूरती
गंभीर चेहरा, चांदी से बाल
बेडौल सी चाल,पर फिर भी कमाल
कसकते घुटने,थकता सा बदन
फिर भी तो जिंदादिल हैं हम
जितनी सहजता सरलता अब चेहरे में है
वो कहां, किसी अल्हड़ में होगी
जो कशिश इस चेहरे में हैं
वो कहीं भी ना ठहरतीं होंगी
मुझे अब कुछ भी नहीं छुपाना
इस उम्र को भी ख़ुशी से बिताना
जीना हैं इसके भी हर लम्हें को
थोड़े थके, थोड़े उलझे से कतरे को
हां प्यार है मुझे इस उम्र के दौर से
हां इंतजार हैं थोड़े रुकें से ठौर से
हां इसमें कोई रवानगी नहीं
बहती बेग सी ज़वानी नहीं
पर सब को आना समुद्र में ही होता हैं
जो विशाल और गहरा होता हैं
उससे ही हर नदी का अस्तित्व होता हैं ..
अनिल “आदर्श”