अपरतंत्र
अपरतंत्र
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किसे नहीं अच्छा लगता स्वतंत्र रहना
जैसे आज हम खुली हवा में सांस लेते हैं
कितना सूकून महसूस करते हैं।
वो इसलिए कि हमारा देश स्वतंत्र है
हमें गर्व होता है कि हम स्वतंत्र भारत के वासी हैं।
पर जीवन में हर पल, हर कदम पर
न तो स्वतंत्र हैं और न ही रह सकते हैं
और न ही ये हमारे हित में है।
बच्चा अधीन है मां के
विद्यार्थी अधीन है शिक्षक के
कर्मचारी अधिकारी अधीन हैं सरकार के
मेहनतकश मजदूर अधीन है
जिसके लिए वो काम करता है
तब जाकर पैसे कमाता है,
सरकार अधीन है जनता के
जनता अधीन है नियम , कानून और व्यवस्था के।
स्वतंत्र होकर भी हम स्वतंत्र कहां हैं?
हर दिन सुख सुविधा, लाभ हानि के दबाव और
मानसिक तनाव में भी रहते हैं।
घर, परिवार,समाज या हमारा कार्यक्षेत्र
किसी न किसी के और किसी भी रूप में ही सही
हमें परतंत्रता का बोध महसूस होता है,
पर उसमें भी हमें सूकून का ही अहसास होता है।
पर ऐसी परतंत्रता हमारे आपके ही नहीं
समाज, राष्ट्र के लिए भी बिल्कुल अनिवार्य है।
वरना सब कुछ अव्यवस्थित हो जाएगा,
हर ओर जंगलराज फैल जायेगा
सारी शुचिता, व्यवस्था का सर्वनाश हो जायेगा,
स्वतंत्रता की आड़ में सब खत्म हो जाएगा।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश
© मौलिक स्वरचित