अपने ही शहर में बेगाने हम
किसकी नजर लगी, आहिस्ता..2 समझने लगे हैं हम। अपने ही शहर में बेगाने से, रहने लगे हैं हम। रिस्तो का ताना बाना अब कहा,हर पल हर क्षण सिमटने लगे हैं हम।।
किसकी नजर लगी, आहिस्ता.. 2समझने लगे है हम। आज़ाद थे उन्माद में चूर, कहा समझ आती थी अपने। आवारा सा फिरा करते थे गली दर गली,रातों पहर। चन्द लम्हे ही सही आजकल, लोगों को समझने लगे हैं हम।।
किसकी नजर लगी, आहिस्ता.. 2समझने लगे है हम। झारेखे से बाहर झांकना मना है,एक अंजान मौत के इन्तजार में खड़ा है। कब कहा कैसे काल के गाल में समा जाते हम। उससे पहले ही अपनो से बिछड़ने लगे हैं हम ।।किसकी नजर लगी, आहिस्ता.. 2समझने लगे है हम। घर वहीं है,जहा सब एक जुट होकर खिलखिलाते थे अक्सर। किसी पुराने ख्यालात को याद कर मंद मंद मुस्कुराते थे अक्सर। उन्हीं अपनो से आजकल किनारा करने लगे है हम।।किसकी नजर लगी, आहिस्ता.. 2समझने लगे है हम। स्वरचित:- सुशील कुमार सिंह”प्रभात” सोनपुर , बिहार