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8 Dec 2016 · 1 min read

अपने हिस्से की चाहिये अब जिंदगी मुझे..

अपने हिस्से की चाहिये अब जिंदगी मुझे
दिखाती है सच साफ़ इल्म की रोशनी मुझे

तन्हाई में पाती है तो चली आती है
चाहती है कब से जाने ये शायरी मुझे

चली बात फर्ज़ की तो थी हर निगाह इस तरफ़
आया हक़ का सवाल तो किया आख़िरी मुझे

गैरों से कैसी शिक़ायत है शिकवा कैसा
मारते है जीते जी अपने लोग ही मुझे

ख्वाहिशें बेचकर मेरी पाता है सुकून
आड़ में इज़्ज़त की सताए है आदमी मुझे

हूँ बाप के घर की कभी ससुराल की इज़्ज़त
इंसां हूँ या इज़्ज़त ए खुदा कर आगही मुझे

बताई जाती है हद हर बात पर ‘सरु’ यहाँ
जीना क्या मरने पर इख्तियार नहीं मुझे

2 Comments · 457 Views
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