अपने मुॅंह मिठ्ठू बनते
अपने मुँह मिठ्ठू बनते सब
चहुँदिशि पट्टू करते शोर
आज अनय की आँधी सबको
त्रास दे रही है घनघोर
मीरा – कृष्ण सरीखे रिश्ते
कलियुग में बेमानी हैं
शकुनी और सुयोधन जैसे
आज मीत हैं, ज्ञानी हैं
वह भी चीर चुराता है अब
नहीं रहा जो माखनचोर
आज अनय की आँधी सबको
त्रास दे रही है घनघोर
नहीं रही पतंगबाजी अब
नहीं फेंकता कोई पाँसा
समय पड़े पर सब देते हैं
एक- दूसरे को अब झाँसा
दुराचार- दुष्कर्म- द्वैष के
मेघ घिरे हैं चारों ओर
आज अनय की आँधी सबको
त्रास दे रही है घनघोर
अब शबरी के बेर न मिलते
विदुर खिलते साग नहीं
शिव – दधीचि की भांति लोग अब
कर पाते हैं त्याग नहीं
मानव को मानव से जोड़े
कहीं बची क्या ऐसी डोर
आज अनय की आँधी सबको
त्रास दे रही है घनघोर
भासित उत्सव की सच्चाई
अब सम्मुख आने वाली है
मोहक छवि चंदा -उडगन की
अगले पल जाने वाली है
कल पछताना होगा उसको
आज नाचता जो मन – मोर
आज अनय की आँधी सबको
त्रास दे रही है घनघोर
महेश चन्द्र त्रिपाठी