अपने मंजिल को पाऊँगा मैं
एक निराट भरी पंथ में
कॉंटे पुरोध थे हजार
इस पंथ पर चलकर ही
वेदना हजारों सहकर भी
अपने मंजिल को पाऊँगा मैं।
क्या हुआ मंजिल ना मिला?
अघाकर विराजने वाला नहीं मैं
एक नहीं शतक बार यत्न करुँगा
दिलोजान मशक्कत कर भी
अपने मंजिल को पाऊँगा मैं।
पंथ में भटकाने वाले
प्रचुर लोक अभिरेंगे हमें
पर मैं भटकने वाला नहीं
अपनी कामना का अंत कर भी
अपने मंजिल को पाऊँगा मैं।
मुश्किलें बहुत आएंगे राह में
पर डटकर सामना करेंगे हम
मुश्किलें दूर करने में
एक से एक प्रयास कर भी
अपनी मंजिल को पाऊँगा मैं।
मंजिल की मनोरथ हमें
चक्षुविहीन बना देती है
पगों तले रूधिर गेरते
पर रूधिर की कुर्बानी देकर भी
अपने मंजिल को पाऊँगा मैं।
लेखक :- उत्सव कुमार आर्या
जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार