अपने भीतर, तू निरंतर
अपने भीतर, तू निरंतर, लौ जला ईमान की
तम के बादल भी छंटेंगे, यादकर भगवान की
अपने भीतर तू निरंतर …………………..
है खुदा के ही नूर से है, रौशनी संसार में
वो तेरी कश्ती संभाले, जब घिरे मंझधार में
हुक्म उसका ही चले, औकात क्या तूफ़ान की
अपने भीतर तू निरंतर …………………..
माटी के हम सब खिलोने, खाक जग की छानते
टूटना है कब, कहाँ, क्यों, ये भी हम ना जानते
सब जगह है खेल उसका, शान क्या भगवान की
अपने भीतर तू निरंतर …………………..
दीन-दुखियों की सदा तुम, झोलियाँ भरते रहो
जिंदगानी चार दिन की, नेकियाँ करते रहो
नेकियाँ रह जाएँगी, निर्धन की और धनवान की
अपने भीतर तू निरंतर …………………..
आँख से गिरते ये आँसू, मोतियों से कम नहीं
कर्मयोगी कर्म कर तू, मुश्किलों का ग़म नहीं
दुःख से जो कुंदन बना, क्या बात उस इंसान की
अपने भीतर तू निरंतर …………………..