घोडा और आदमी
कहते हैं कि घोड़ा पहले पालतू जानवर नहीं था।
वह जंगलों में मुक्त अवस्था में घूमा करता था। एक बार किसी बात पर शेर से उसका झगड़ा हो गया। घोड़ा शेर की अपेक्षा कम बलवान था। वह डरकर भागा। शेर उसका पीछा करने लगा। भागते-भागते घोड़े को एक आदमी दिखायी दिया।
घोड़े ने बड़े कातर भाव से आदमी से प्रार्थना की कि वह उसे शेर के आतंक से मुक्ति दिलाये। आदमी ने कहा, “मैं तुम्हारी रक्षा करने के लिए शेर से लड़ तो सकता हूँ; पर मेरी गति शेर से कम है, इसलिए मुकाबला कठिन है।’’
घोड़े से कहा कि यदि वह उसकी पीठ पर सवार हो जाये, तो उसकी गति बढ़ जायेगी। आदमी ने घोड़े की पीठ पर सवार होकर शेर को पराजित कर दिया। घोड़े की रक्षा हो गयी।
घोड़े ने आदमी को धन्यवाद देते हुए बड़े कृतज्ञ भाव से कहा, “आपने मुझ पर और मेरी भावी पीढ़ियों पर बड़ा उपकार किया है। हम इसे कभी भूल नहीं सकते। अब कृपया मेरी पीठ से उतरने का कष्ट करें, जिससे मैं स्वतन्त्र रूप से जंगल में घूम सकूँ।’’
इस पर आदमी ने कहा, “भाई घोड़े जी, तुम्हारी बात तो ठीक है; पर तुम्हारी पीठ पर बैठने में मुझे इतना आनंद आया है कि अब उतरने की इच्छा नहीं होती।’’ कहते हैं कि तब से आज तक आदमी घोड़े की पीठ से उतरा नहीं है।
यह कथा सुनाकर सयाने लोग बताते थे कि हम चाहे अमरीका से मित्रता करें या रूस से; पर वे अपनी शर्तें हम पर जरूर थोपेंगे। काम निकल जाने के बाद केवल प्रेमवश वे हमारी पीठ से नहीं उतरेंगे। इसलिए दूसरों की मित्रता पर निर्भर रहने की अपेक्षा अपनी शक्ति ही बढ़ानी चाहिए।