अपने कदमों को बढ़ाती हूँ तो जल जाती हूँ
अपने क़दमों को बढ़ाती हूँ तो जल जाती हूँ,
प्यार की रस्म निभाती हूँ तो जल जाती हूँ।
जब भी चिलमन को हटाती हूँ तो जल जाती हूँ,
आँख से आँख मिलाती हूँ तो जल जाती हूँ।
इस क़दर आग मोहब्बत की लगाई उस ने,
शोला-ए-इश्क़ बुझाती हूँ तो जल जाती हूँ।
जाम-ए-उल्फ़त का नशा मुझ से न पूछो यारो,
जब भी होंठों से लगाती हूँ तो जल जाती हूँ।
यूँ तो असबाब हैं जलने के बहुत ही लेकिन,
तेरी यादों में नहाती हूँ तो जल जाती हूँ।
जब भी लिखती हूँ ग़ज़ल मैं रात के सन्नाटे में,
क़ाफ़िया जैसे मिलाती हूँ तो जल जाती हूँ।
जिस तरह देखा है जलते हुए परवाने को,
मैं भी शम्मा को जलाती हूँ तो जल जाती हूँ।
शमा परवीन – बहराइच (उत्तर प्रदेश)