अपने आप से बात
क्यों छिप छिप कर अश्क बहाती हूं,
क्यों अनमोल मोती लुटाती हूं,
क्यों गीली उमर बनाती हूं,
क्यों डूबे बिना नहाती हूं,
कुछ सपनो के टूट जाने से, क्यों जिंदगी अपनी बिखराती हूं।। क्यों कमजोर बन कर रहती हूं, क्यों चलने के लिए वैसाखी ढूंढती हूं, क्यों हर मोड़ पर अपनी काबलियत नहीं पहचानती हूं, कट कट कर पत्थर गिरते हैं रूकावटों के रास्ते में, . क्यों चट्टान की तरह खडी नहीं रह पाती हूं, कलम से मैं कविताएँ बनाती रहती हूं, सुबह मेरे सामने हैं फिर मैं अंधेरी में क्यों महल बनाती हूं ।।
कृति भाटिया, बटाला ।