अपनेपन का मुखौटा
मुखौटों के बाज़ार में, वो खुद को बेच आते हैं,
इतने चेहरे एक शख्सियत में, जाने कहाँ से वो लाते हैं।
मुस्कान ओढ़े दहलीज पर, तुम्हारे चले आते हैं,
और आंसुओं के तोहफे से, तुम्हारे दामन को ये भर जाते हैं।
घावों पर मरहम का ढोंग भी, क्या खूब रचाते हैं,
की उन्हीं घावों को प्रेम से, कुरेद कर नासूर बनाते हैं।
विश्वास पर विजय हेतु, जाल शब्दों के बिछाते हैं,
और उन्हीं शब्दों को विष-बाण बना, सीने को छलनी कर जाते हैं।
दम्भ का नाद बजा, स्वयं के अहंकार को संतुष्ट कराते हैं,
मूल्यांकन स्वयं का कर, स्वयं को हीं विजेता बताते हैं।
मतलबपरस्ती की परिभाषा सीखा, आपको इस उपाधि से अलंकृत कर जाते हैं,
खुद की दिशा जाने बिना हीं, मंजिल आपकी ये तय कर जाते हैं।
दर्द आपका जानकर, पुरे शहर में उसकी बोली लगाते हैं,
ये केंचुली उतारने में तो, भुजंग को भी पीछे छोड़ जाते हैं।
कुछ अपने अपनेपन की क्या मिसाल खड़ी कर जाते हैं,
की दुश्मन के दिए घाव भी, अपनों के दिए जख्मों के आगे,
शर्मिंदगी से सर को झुकाते हैं।