अपनी डिक्शनरी से ही गायब रविवार
वो पूछ रहे थे मर्ज मेरा क्या जवाब दूँगा
उसकी बज्म में नज़्म से यह जवाब दूँगा
अपनी आँख मे दर्द का समंदर छुपाए हूँ
कहाँ से लाकर खुशी की मैं किताब दूँगा
स्टालिन के स्टाइल की मूँछ रखता मैं तो
जाने कब उसको हाथ से मैं गुलाब दूँगा
इस नोकरी में हम परवाना बनना भूले
मिले कभी सरकार तो कुछ सवाल दूँगा
सत्ता की गलियों में हमें गालियाँ क्यों
नहीं चमचागिरी में लाकर शराब दूँगा
फ़ौजी हूँ या पोलिस वाला यहाँ पर मैं
कहाँ तक अवकाश के मैं हिसाब दूँगा
अपनी डिक्शनरी से ही गायब रविवार
बच्चों को जाकर के क्या मिसाल दूँगा
अशोक सपड़ा दिल्ली से
9968237538