अपनी ज़ुल्मत-ओ-नफ़रत को अदा कहती है
अपनी ज़ुल्मत-ओ-नफ़रत को अदा कहती है
दुनियां मेरी मोहब्बत को ख़ता कहती है
क़िस्से पुराने वही गम-ए-दिल की दास्तान
फिर क्यूँ दुनियां इस दौर को नया कहती है
चाराग़र से नहीं जो सितमगर से मिलता है
ये मोहब्बत उसी ज़हर को दवा कहती है
खूब सितम ढाती है जब तू लड़ जाती है
ए-आँख तू जो मिरी ज़ुल्फ को बला कहती है
लगा कोई इल्ज़ाम कर ले क़ैद ए माली
मैं ख़ुश्बू चुराकर ये चली हवा कहती है
हसरत है बरसों से मीठी -सी मुस्कान की
देखो आँसू ना दिखलाना क़ज़ा कहती है
कलाम और काग़ज़ ने जी- भर के की बातें
अपनी तन्हाइयों को ‘सरु’ कहाँ सज़ा कहती है