अपना ही शहर आज मुझे बेगाना क्यूँ लगा
अपना ही शहर आज मुझे बेगाना क्यूँ लगा
मेरी ग़रीबी की हक़ीक़त अफ़साना क्यूँ लगा
प्यार सदा से था इसमें दिल ही ऐसा पाया है
वो जो मेरा दिलबर था अंजाना क्यूँ लगा
मैने तो रखा नहीं कभी मैल मन में अपने
दुनियाँ से इतना फिर मुझे हर्जाना क्यूँ लगा
सहता घुटता रोता रहता तो खुश थे तुम बहुत
माँगा जो आज हक़ अपना वहशियाना क्यूँ लगा
नीलाम हुई इंसानियत नेताओं का खेल हुआ
उसने खाया न ख़ौफ़-ए-खुदा दीवाना क्यूँ लगा
नाज़ था हूमें कितना माना था उसे रहनुमा
अपनों का भी साथ आज बचकाना क्यूँ लगा
यूँ उड़ाकर अफवाहें बिक गया है किस के हाथ
तेरे ज़मीर का बंदे ये बयाना क्यूँ लगा
सुरेश सांगवान’सरु