अपना सपना :
आमंत्रण पर बन आभारी
कर आचमन करू सृजन !
है धरा धरातल जुता-जुताया
करू रोपित जो किया अर्जन !
शब्दों का संयोजन मेरा
बनता जाए जन-संदेश !
सुघड़ जायें सारे मनुज
और सॅवर जायें सारे देश !
प्रेम,सद्भाव और बराबरी
नवऋचा,नवमंत्र बन जाए !
जो मन,मानस चेतन रखें
कोई ऐसा यंत्र बन जाए !
ये मेरी दुनिया,तेरी दुनिया
बन जाए हमारी दुनिया !
करनी में बदल सब जाए
हम सभी की कथनिया !
फले-फूले ये सारी दुनिया
पाए मानवता चरम उत्कर्ष !
मिल-जुलकर सब संग
जीते जग के सारे संघर्ष !
पंक दलदल से निकल
निर्मल नीरज बन जाए !
जैसे एक दीप जले कही
और सबका सूरज बन जाए !
जब सद्भाव,समता,समानता
मानवता का संसर्ग चाहे !
और बोलबाला बराबरी का
फिर क्यों कोई वर्ग चाहे !
श्रम-परिश्रम,सहयोग से
यहाँ जो भी निसर्ग चाहे !
उसे सब मिल जाए तो
फिर क्यों कोई स्वर्ग चाहे !
बढ़ाने मानवता का प्यार
बसाने सपनों का सुखी-संसार !
बस हमें तो जरूरत है
एक महा सोच,एक महा विचार !
~०~
– मौलिक एवं स्वरचित .रचना संख्या-०१
जीवनसवारो,२२ मई,२०२३.