अपना घर
भरतपुर राजस्थान में लावारिस, शारीरिक एवं मानसिक अस्वस्थ लोगों की देखरेख हेतु संचालित “अपनाघर” का अवलोकन किया तो ये कविता लिखी:-
मावस के घुप्प अंधेरे में, रोती आवाजें आती हैं…
बिन कपड़े रिसती देहों को जब लाल चींटियां खाती हैं…
तन रिश्ता है मन घायल है, अपनों का कोई पता नहीं…
रूहें तो तन से गायब हैं, सपनों का कोई पता नहीं …
जब सांसे रुकती दिखती हैं कोई त्रान नजर नहीं आता है.
जब एक करिश्मा होता है और अपना घर मिल जाता है…
तन धुलता है उर खुलता है, कपड़े पहनाए जाते हैं…
तन घावों की पट्टी होती मन घाव सिलाए जाते हैं…
बर्षों से रीते उदरों को, जब भोग लगाया जाता है…
मन का तन का और जीवन का हर रोग भगाया जाता है..
तन में ताकत आजाती है मन उपवन सा खिल जाता है…
जब एक करिश्मा होता है और अपना घर मिल जाता है…
सुश्वाद भोग परिधान सुखद, इक दीन प्रभु बन जाता है..
हरि कीर्तन भजन पारायण से नर नारायण मिल जाता है..
कीर्तन गायन और स्वाध्याय सेवा और धर्म समझ आता..
तन इतराता मन हुलसाता जीवन का मर्म समझ आता..
गीता चरितार्थ यहीं होती, अंतर्मन तक हिल जाता है…
जब एक करिश्मा होता है और अपना घर मिल जाता है…
भारतेन्द्र शर्मा “भारत”
धौलपुर