अपंग
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फड़क रहा हैं अंग अंग ; फुंफकार भर रहा भुजंग,
नेत्र विशाल, रौद्र रूप ; मुख उगल रहा अग्नि प्रचंड,
भुजा चार, काल सम ; तलवार, कटार, त्रिशूल, दंड,
शत्रु पर चला के तू ; कर दे उसके खंड खंड,
बेचारी रूप त्याग कर ; तू नारी है, अब काली बन,
अत्याचार हुए बहुत ; ना होने दे तू चीर हरण,
कर दे उसका नाश तू ; जो बुद्धि से हो अपंग,
नीयत विचार जिसके खोट ; कर दे उसका अब तू अंत,
धीर बन तू वीर बन ; खुद की बन ले ढाल तू,
तू नारी है, बन आदि शक्ति ; त्याग दे तू अपना तंक ।
*तंक — भय, डर
◆◆©ऋषि सिंह “गूंज”