अन्नदाता
कोई होटल की बिखरी ओस में भींग रहा है
कोई खेतों की गर्मी से खुद को सींच रहा है
कोई पकवानों के जैसा फल फूल रहा है
कोई पेड़ों की शाखों पर झूल रहा है
न मिलता किसी को पेट भर खाने को है
किसी का देखकर खाने को मन ऊब रहा है
कोई खुद में ही लाचारी को महसूस कर रहा है
कोई जेबों से लापरवाही को बस फूंक रहा है
कोई भरता है मोटर से जिंदगी की उड़ानों को
कोई पग पग पे अपनो के लिए बस लड़ रहा है
कोई करता है गैरों से गिला अपनी नुमाइश का
कोई बिखरे हुए सपनो को लेकर दम तोड़ रहा है ।
!! आकाशवाणी !!