अन्नदाता के हक़ में ….. ( कविता )
वोह सुबह -शाम खेतों पर काम करते हैं,
कड़ी मेहनत कर अपना पसीना बहाते हैं.
अन्न की पैदावार हेतु जी जान लगाते हैं,
तभी हमारी थालियों में हम भोजन पाते हैं.
वोह त्यागी ,मेहनती और सहनशील इंसा,
और अपने फर्जो -ईमान के पक्के इंसा ,
रहते हैं माटी के क़र्ज़ तले दबे हुए यह इंसा,
धरती की संतान वास्तव में यही इंसान कहलाते हैं.
वोह कुदरत का कहर भी खुद पर झेलते हैं,
मौसम की मार भी जाने कैसे सह जाते ह?
धरती की हरियाली चुनर रंगने को यह दीवाने ,
धरती का भी हर सितम झेल जाते हैं.
वोह ना तो कोई ख्वाईश पालते हैं, ना ही अरमान ,
रुखा -सुखा खाकर ही गुज़ार देते हैं सारा जीवन .
सारे देश को खिलाने वाले खुद कभी भूखे सो भी जाते हैं ,
मगर जुबा पर कोई शिकवा / आह नहीं लाते हैं.
मगर अब वक़्त बदल रहा है , इन्हें भी बदलना होगा ,
सुख और संपन्नता से जीने का हक़ इन्हें भी पाना होगा.
स्वास्थ्य ,शिक्षा , और कृषि सम्बन्धी ,नयी तकनीकी को जानना होगा,
सरकार की सारी योजनाओं से रूबरू इन्हें भी होना होगा.
आखिर यह भी तो देश के नागरिक कहलाते हैं.
प्रकृति के पुत्र और धरती के मेहनतकश लाल हैं वोह,
हमें जीवन देने वाले हमारे अन्नदाता हैं वोह ,
क़र्ज़-मुक्त होकर खुशहाल बनेंगे ,तभी होगा देश भी खुशहाल ,
चलो ! हम सब मिलकर इनके हक़ में आवाज़ उठाते हैं.