अन्तर्मन
सहज मेरा दिल सहता है
या इसकी एक विवशता है
कभी किसी ने न समझा
मेरा अन्तर्मन क्या कहता है।
कोख से प्रादुर्भाव हुआ तो
परख जांच पड़ताल हुई।
जन्मदात्री जननी की
मुझ संग गति बेहाल हुई।
यदि दयावश हुआ मेरा आगमन
तो यह परिवार की सहृदयता है।
कभी किसी ने न समझा
मेरा अन्तर्मन क्या कहता है।
मैं हूँ घर का मान सम्मान
मुझ से घर की मर्यादा है।
बंधनों में जीने का
मुझे सबसे करना वादा है।
जीना है मुझको वैसे ही
जैसे समाज ये कहता है
कभी किसी ने न समझा
मेरा अन्तर्मन क्या कहता है।
हो गयी मैं अब बहुत बड़ी
आई आई विदाई की घड़ी।
बड़ी बड़ी सीखों की कथाएं
भर के मेरे कानों में पड़ी।
कि अब दो घरों की इज्जत
पर असर तेरे कर्मों से पड़ता है।
कभी किसी ने न समझा
मेरा अन्तर्मन क्या कहता है।
बन गयी बहू, बन गयी पत्नी
अब से यही मेरा डेरा है।
वो था पिता का, ये घर पति का
मेरा तो बस पग फेरा है।
सेवा करना बस धर्म है मेरा
मेरा अस्तित्व ये कहता है।
कभी किसी ने न समझा
मेरा अन्तर्मन क्या कहता है।
घर की सेवा, जीवन साथी की खुशियां,
वंशवृद्धि हैं मेरे काज।
इससे अधिक न महत्ता मेरी
न तो कल थी न है आज।
संतानोत्पत्ति का कष्ट माँ बन मैं सहती
नाम वंश सब पिता का बढ़ता है ।
कभी किसी ने न समझा
मेरा अन्तर्मन क्या कहता है।
इसी ऊहापोह में बीती जिन्दगी
आ गयी देखो जीवन की सांझ।
झंझावातों में निकल गये दिन
टूटने लगी सांसों की मांझ।
बेटों पोतों पति के कांधे
चली अपने गंतव्य को मांदे मांदे।
कानों में अंतिम शब्द थे….
भाग्यवान है बड़ी ये देखो
पीछे भरा-पूरा परिवार जो बसता है।
कभी किसी ने न समझा
मेरा अन्तर्मन क्या कहता है।
–रंजना माथुर दिनांक 17/11/2017
( मेरी स्व रचित व मौलिक रचना)
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