अन्तर्मन की खामोशी
अन्तर्मन की खामोशी भी तोड़ देती है..
मन को झकझोर देती है
अच्छा बनते बनते खुद टूटकर
वो अपनों को खुश रखने की ख़्वाहिश
बस मुस्कुराहट की लहर दौड़ने लगती है
आत्मा की चीख बाहर किसे सुनाई देती हैं
ज़िम्मेदारियों के बोझ तले यों ही दबती जाती है
अन्तर्मन की खामोशी भी तोड़ देती है
कोई कह नहीं पाता..कोई सुन नहीं पाता
कोई समझ नहीं पाता..कोई समझा नहीं पाता
मर जाता जैसे कुछ अंदर ही अंदर
चेहरे की हंसी के पीछे वो
पुकार क्यों सुन नहीं पाता है
अन्तर्मन की खामोशी भी तोड़ देती है
उलझता जाता अपने ही ताने बाने में
मन क्यों इतना निष्ठुर हो जाता है
रिश्ते बनते हैं निभाने के लिये
पीड़ा फ़िर भी क्यों दे जाते हैं
“त्याग, समर्पण” क्यों अपने अर्थ खो जाते हैं
जीवन संध्या में मिलते जो कंधे चार
जीते जी वो कहाँ छुप जाते हैं
अन्तर्मन की खामोशी भी तोड़ देती है
थक जाता है इंसान..चुप हो जाता है
रिश्तो को संजोते संजोते..सहन करते करते
हंसते मुस्कुराते बस सीख जाता है जीना
महफ़िल में वो बेवज़ह की खिलखिलाहट
अकेले में अक्सर दम तोड़ती शख्सियत
अश्रु की नदियाँ यों ही सूख जाती हैं
क्यों अपने ही किनारा कर जाते हैं
अन्तर्मन की खामोशी भी तोड़ देती है
ओढ लेता है खुशियों की चादर
बिखरा अस्तित्व फ़िर से निखरना चाहता है
जो मन की पीड़ा न समझें उनसे किनारा ही अच्छा
ये दिल खुद को समझाना चाहता है
उजालों में ही मिलते हैं सहारे
अंधेरे में तो अपनी काया भी बेसहारा कर जाती है
अन्तर्मन की खामोशी भी तोड़ देती है
©® अनुजा कौशिक