अनुशासन
समय समय पर अनुशासन शब्द की व्याख्या विद्वानों द्वारा की जाती रही है। अनुशासन, दो शब्दों से मिलकर बना है, अनु+शासन। अर्थात अनु उपसर्ग शासन से जुड़कर अनुशासन का निर्माण करता है।
अनुशासन, अर्थात नियमों के शासन में रहना, अर्थात क्रियाकलापों में नियमों का पालन, नियंत्रण व आज्ञाकारिता।
अनुशासन का अर्थ सख्ती करना नहीं है, जैसा कि इसे समझ लिया जाता है। यथा – अमुक विद्यालय के प्रधानाचार्य का अनुशासन बहुत अच्छा है, सभी बच्चे उनसे डरते हैं।
आदर्शवादी विद्वानों का मत है कि बालक का पूर्ण विकास अनुशासन में रहकर ही हो सकता है अतः बालक को उचित प्रकार से निर्देशित स्वतंत्रता के वातावरण में कठोर अनुशासन में रखना चाहिए।
प्रकृतिवादी दर्शन के अनुसार बच्चों को कभी दंडित नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि बाह्यशक्ति पर आधारित अनुशासन गलत है।
यथार्थवादी दर्शन कहता है कि प्रत्येक प्राणी को सामाजिक नियंत्रण में अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करके सुख प्राप्त करना चाहिए। इनके अनुसार सामाजिक संपर्क के प्रभाव से अनुशासन स्थापित होता है।
प्रयोगवादी कहते हैं कि यदि किसी समुदाय के लोग किसी तथ्य या आदर्श को परीक्षण में उपयुक्त पाते है तो उसे अपनाना चाहिए, यह उन्हें अनुशासित कर देगा।
उपरोक्तानुसार सभी का सार व सिद्धांत यही है कि स्वतंत्रता तभी सार्थक सिद्ध होती है जब वह सुनियंत्रित हो। उदाहरण के लिए एक पतंग, जब तक डोर के अनुशासन में है, अर्थात डोर के नियंत्रण में आगे बढ़ने को स्वतंत्र है, तब तक वह ऊपर ऊपर अथवा मनचाही दिशा में उड़ती रहेगी। यदि यह नियंत्रण टूट जाए, यदि डोर टूट जाए तो पतंग को गर्त में जाने से कोई नहीं रोक सकता।
गोस्वामी तुलसीदास जी की श्रीरामचरितमानस में कई दृष्टान्तों का उल्लेख है जिससे अनुशासन को और सटीक समझा जा सकता है।
मैं इस हेतु एक प्रसंग प्रस्तुत कर रहा हूँ-
महर्षि विस्वामित्र के सामने जब भगवान राम, अपने अनुज लक्ष्मण को नगर जनकपुर दिखाने की इच्छा प्रकट करते हैं-
लखन हृदय लालसा विसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी।।
प्रभुभय बहुरि मुनिहिं सकुचाहीं। प्रकट न कहहिं मनहिं मुस्काहीं।।
राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिय हुलसानी।।
परम विनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुरु अनुशासन पाई।।
अंतिम पंक्ति में अनुशासन शब्द प्रयुक्त हुआ है। जब राम को अपनी बात प्रारंभ करनी थी तब गुरु के समक्ष इच्छा प्रकट करने के साहस की आवश्यकता थी, तो यह साहस उन्हें गुरु के अनुशासन से प्राप्त हुआ।
अनुशासन का अर्थ “आज्ञा” कदापि नहीं है। अनुशासन तो सुनियंत्रित स्वतंत्रता है। जैसे ही राम को गुरु का अनुशासन अर्थात अपनी बात रखने का संकेत, प्रोत्साहन मिला, उन्होंने अपनी बात कह दी-
नाथ लखन पुर देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रकट न कहहीं।।
जो राउर आयसु मैं पावौं। नगर दिखाइ तुरत लै आवौं।।
अर्थात यदि गुरुदेव की आज्ञा हो तो अपने अनुज को नगर दिखा लाऊँ।
अर्थात यह आज्ञा माँगने का साहस करने के लिए उन्हें गुरु के अनुशासन की आवश्यकता हुई। नगर घूमने के लिए गुरु के अनुशासन की आवश्यकता नहीं है, वहाँ दोनों भाई स्वतंत्र रूप से दर्शनीय स्थलों का अवलोकन कर सकेंगे, जिस प्रकार से उन्हें रुचिकर और आनंददायी लगे।
इसीप्रकार जब धनुषमखशाला में जनक जी के निराशापूर्ण उद्बोधन पर लक्ष्मण जी क्रोधित होते हैं और श्री राम जी से कहते हैं-
सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहहुँ सुभाव न कछु अभिमानू।।
जो तुम्हारि अनुशासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्माण्ड उठावौं।।
अर्थात यदि आपके द्वारा सुनियंत्रित समर्थन मुझे प्राप्त हो तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को एक गेंद के समान उठा सकता हूँ।
भाव यह है कि लक्ष्मण जी को ब्रह्माण्ड भी गेंद के समान उठाने के लिए श्रीराम की आज्ञा नहीं वरन अनुशासन की आवश्यकता है, उनसे सुनियंत्रित सहयोग की आवश्यकता है।
इस प्रकार अनुशासन का वास्तविक अर्थ है- सुनियंत्रित सहयोग अथवा समर्थन।
विद्यार्थियों को इसी परिभाषा के अनुसार अनुशासन में रखना चाहिए।
संजय नारायण