अनुभूती
अनुभूति
मेरे मन की अनुभूति व्यक्ति-अभिव्यक्ति
के भँवर में
सदैव डूबती -उतराती रहती है।
न जाने किन झंझा-झकोरों में
फँसी उलझती जाती है।
देख वैमनस्यता के बीज
स्नेहारोपण क्यूँ
करना चाहती है।
अनुभूति ,कितने भावों तक
पहुँच कर
अनबूझ पहेली बन
जाने कहाँ ,तिरोहित हो जाती है।
ये अनुभूति मन की रेतीली भूमि पर
नहीं पनपती।
यह उपजती हैं उस माटी की नम धरा पर
जहाँ अविरल बहती नेह नीर।
कंटक कब समझते उस पीर को ,
अनुभूतियों के कोमल पुष्प के
मुलायम कोंपल को
अपनी कठोर कटुता से
चीर देते हैं।
और छोड देते हैं
तीक्ष्ण मरु भूमि पर
तड़पती मीन की भाँति।
मेरी अनुभूतियाँ…
पाखी_मिहिरा