अनुभूति के बेकल पल
स्वरचित कविता
अनुभूति के बेकल पल
अनुभूति के कुछ बेकल पल,
ये उलझे सिमटे सुलछे पल ,
स्मृति पटल पर छपे निश्छल,
छाप अमिट लिए ये प्रति पल ।
कहते कुछ कह, कहते कुछ सुन,
इस मन वीणा कि धुन तू सुन ।
उलझे जीवन के उलझे पल
सब सुलझ जाए गे बस इक क्षण ।
तुम धीर बनो मन वीर करो,
युद्ध वीर बनो संधीर बनो ,
फिर कर्मठता से डटे रहो,
इस जीवन के युद्ध स्थल पर तुम ।
एकाग्र करो मन , कार्य करो फिर,
आशा से उन्नति कि तुम
तब देखो सफलता छूती चरण-
तुम निश्छल मन धनधीरों के,
तन मन के सुंदर मानव जन ।
इस ऊहा पोह में भटका मन,
जब आशा किरण से जग जाता,
तन के संग उज्ज्वल होता मन ।
उस क्षण को मत खो जीवन में ,
वह क्षण अमूल्य अपरिमित है –
उस क्षण पर आश्रित जीवन है ।
उस पल तू छोड़ निराशा को,
उद्यत हो खींच कर्म रथ को ।
फिर जीवन डोर असीमित है
उस पर मन वीर जो तत्पर है।
फिर पूर्ण योग से किया कर्म
जीवन की उत्तमता का मर्म
करता वह विजयश्री का वरण
सुमार्ग पर प्रेरित बनता धर्म ।
सुसभय सुसंस्कृत सुंदर मन ,
प्रसन्न मुदित रहता प्रतिक्षण,
यदि उस मेँ मिश्रित हो श्रद्धा
अपनों से बड़े उम्र , गुण में ।
फिर ऐसे जीवन के कहने क्या
मत पूछो बस भई वाह भई वाह ।
सब विधि सब सुख इसी धरातल पर
तेरे होंगें ए बेकल मन !
धन्यवाद करो उस ईश्वर का
उस पर्मेश्वर का जगदीश्वर का –
जिस की महिमा है अपरामपार
जिस की गुण गरिमा है अपार
जिस की कृपा से यह देह प्राप्त
फिर धैर्य और कर्मठता व्याप्त ।
उस कर्म भूमि में कर्मरत
हम सभी संजीवनी शक्ति सहित
प्राप्त करते निज लक्ष्य निहित।
हम में ऐसा विश्वास बने
हम में ऐसा उत्साह बढ़े
हर मुश्किल को आसान करे
ज्वालामुखी को वरदान करे
उस सिधस्त के वरद हस्त
के सम हो सब के हितकारी
हम बने मानवता के पुजारी।
विनीता नरूला