अनुगूँज
प्रकृति सुन्दरी मुस्कराती है ,
रंगत जब अपनी फैलाती है ।
बाग बगीचे खलिहानों में ,
दुति को अपनी दमकाती है ।।
अबोध हाथ पांव हिला जब ,
सुरमयी स्वर वाचे है तान ।
प्रकृति आँचल में दुपका कर ,
बढ़ा देती है उसका मान ।।
बाल्यावस्था में राह जनित ,
ठोकरों से बचा कर प्रकृति ।
नये वातावरण में कर पल्लवित ,
देती है उसके तन को आकृति ।।
इसी मिट्टी पल और बढ़ कर ,
वाणी को शिशु व्यक्त करता ।
किलकारी की महके अनूगूँज ,
प्रकृति से ही सम्बल है मिलता ।।