अना
ज़िंदगी भर अपनी मन की करता रहा,
तेरी हर बात मैं अनसुनी करता रहा,
ज़िंदगी के इस आखिरी दौर में तुझ से इल्तिज़ा करता हूं ,
मेरी ख़ता माफ़ करना तेरी सलाह ना मानकर , कशम़कश भरी ज़िंदगी गुज़ारी क़ुबूल करता हूं ,
कुछ फर्ज़ की बंदिशें थी , कुछ रिश्तो के दायरे थे ,
कुछ एहसास की मस्लिहतें थीं ,
कुछ व़क्त की मजबूरियां थी ,
कुछ हालातों के तकाज़े थे ,
कुछ हम अलम के मारे थे ,
हमने क्या पाया क्या खोया की कोई फ़िक्र ना रही, ज़िंदगी बेहिसाब गुज़री , किसी की मोहताज ना रही ,
इस दौर में कुछ मेहरब़ान मिले ,कुछ क़द्रदान मिले,
कुछ एहसानमंद मिले कुछ फ़रामोश मिले ,
कुछ जज़्बाती , कुछ हालाती दोस्त मिले ,
कुछ रहमदिल , कुछ संगेदिल इंसां मिले ,
हर बार ठोकर खाकर संभलता मुश्किलें पार करता गया।
इस तरह जिंदगी के मरहलों से गुज़रता आगे बढ़ता गया।