अनासक्ति
अनासक्ति
उस अदृश्य नियन्ता ने
पर्वत ,कहीं समुद्र बनाया।
कहीं सम मैदान बनाकर
उन पर जन आबाद कराया।।
पर्वत ने पाया है नभ को
सागर ने पायी गहराई ।
मानसून का चक्र चला कर
उसने है विज्ञान सिखायी।।
पर्वत को मिलता जो जल है
सागर को लौटाता नदियों से।
पर्वत दिखलाता अनासक्ति
सागर वापस करता नीरद से।।
यह चक्र संतुलन अनायास
आपस का प्रेम सिखाता है।
अनासक्त संग्रह करने का
सात्विक भाव जगाता है।।
मोती प्रसाद साहू