“अनावश्यक चाह का नशा”
नशा को लेकर स्यमं खुद पैदा हुए,
इच्छा अपेक्षाएं विकार नशे बाद चटनी।
नशे के बाद विकार जैसी चाट लेकर,
एच्छिक त्रप्ति हेतु नशा विकार विधा आयी।
ज्ञान विवेक बिन जब नशे में टहलता,
उसकी कमी होने पर बाजारसे नशामोललेता
ज्ञान विधाएं जगह से भाग जाती,
संसारिक संस्कृति में डूब कर बहकते रहे।
संसारिक व्रत्ति जैसी है मेरी जीवन प्रकृति,
संस्कृति अस्तित्व विधा वैसी नहीं बना पाते।
माया मोह के जाल में फंसकरअपने परायेरहे
जिसका कोई अस्तित्व नहींइसी विधामेंजिये
हे मेरी!अध्यात्म प्रेरणां,
आत्म प्रबलता मुझमें भर दो।
कितने भोगिक रुप में रहते हम,
आत्मविश्वास बनाकर अंतर्ब्रह्म भरदो।