“अनमोल सौग़ात”
शुष्क, बन्जर भूमि पर,
ज्यों हो गया जलपात।
बाण उर मेँ जा लगा,
था मृदुल सा आघात।
उसकी आभा थी धवल,
कोमल था उसका गात।
कैसे कहता किन्तु,
या करता भी क्यों अर्थात।
मित्र भी अचरज मेँ थे,
कैसे थे ये जज़्बात।
कोई कुछ भी कह सके,
थी किसकी क्या औक़ात।
था रहा, “आशा”, निराशा,
का निरन्तर साथ।
थी अमावस मेँ खिली ज्यों,
चाँदनी सी रात।।
प्रेम था ज्यों दे गया,
अनमोल इक सौग़ात।
अधर रहते मौन,
पर नयनों से होती बात..!
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