अनजानी आस के पीछे
रेगिस्तान में पानी
तलास्ता है यह मन
पतझड़ में वसन्त के
आने की आहट है सुनता
बंजर धरती पर फूलो की खेती
करने को है अकुलाता
यही अकुलाहट
ऐसी ही प्रातीझा
उद्देलन इसी किस्म का
देता है जन्म उन उम्मीदों को
वैसी तस्वीरें रचता है
जिनका कोई आधार नही
जिनकी कोइ नियति नही
सपनो की दुनिया में
इच्छाओ की रेल गाडी
चलती ही जाती है
कोयले की
रेलगाड़ी की तरह
स्वप्न जागते है
जलते बुझते है
बिजली के लट्टूओ की मानिंद
येन जुगनुओं जैसे