अनजाना
हार गए हैं आईने भी इंसान को पहचानने में यहां
चेहरे अपनों के भी मुखोटों के पीछे गुम हो गए हैं
बंद रखे हैं खिड़की औ दरवाजे घरों के शहर में यहां
खामोश रहते लोग न जाने किस जहान के हो गए हैं
मिलता था हर ओर चैन और सुकून कल तक यहां
अपने थे जो लोग न जाने क्यों आज पराये हो गए हैं
दिख रहा है हर ओर चेहरा आज अनजाना सा यहां
शहर में जिंदादिल रहे लोग भी खुदगर्ज़ हो गए हैं
जज़्बात का ‘सुधीर’ उठ चुका है शायद जनाजा यहां
अपनापन और भाईचारा न जाने कहां गुम हो गए हैं..