अनकहे जज़्बात।
तू कितनी मेरी मैं कितना तेरा,
बस यही बताना रह गया,
नाराज़गी-बेरूखी़ तो अक्सर ही दिखी,
बस हक जताना रह गया,
ऐसे कई ख़्याल थे जिनको,
लफ्ज़ों से सजाना रह गया,
यूं तो बहुत कुछ मैं कहता गया,
बस जज़्बात बताना रह गया,
अल्फ़ाज़ की ख़ूबसूरत यादों का,
दिल में नज़राना रह गया,
बेतकल्लुफ़ी का मौका ना आया कभी,
कि रूठना-मनाना रह गया।
कवि-अंबर श्रीवास्तव